जव्वाद शैख़ | तो क्या इक हमारे लिए ही मोहब्बत नया तजरबा है | तजरबा ग़ज़ल | खूबसूरत ग़ज़ल



तो क्या इक हमारे लिए ही मोहब्बत नया तजरबा है जि

से पोछिए वो कहेगा कि जी हाँ बड़ा तजरबा है 


समझ में न आए तो मेरी ख़मोशी को दिल पर न लेना 

कि ये अक़्ल वालों की दानिस्त से मावरा तजरबा है 


कठिन तो बहुत है मगर दिल के रिश्तों को आज़ाद छोड़ो 

तवक़्क़ो' न बाँधो कि ये इक अज़िय्यत भरा तजरबा है 


मगर हम मुसिर थे कि हम ने किताबें बहुत पढ़ रखी हैं 

बड़ों ने कहा भी कि देखो मियाँ तजरबा तजरबा है 


वो अपनी जगह ख़ुश-गुमाँ थी कि दाइम है पहली मोहब्बत 

मैं अपने तईं मुतमइन था कि ये दूसरा तजरबा है 


किसी और के तजरबे से कोई फ़ाएदा क्या उठाएँ 

मोहब्बत में हर तजरबा ही अलग तरह का तजरबा है 


जव्वाद शेख़









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