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एक संग-ए -बद नुमा हैं बा'जाहिर मेरा तारूफ
कोई नियत से तराशे तो बड़े काम का हूं
ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता
पुराने यार भी आपस में अब नहीं मिलते
न जाने कौन कहाँ दिल लगा के बैठ गया
हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल
उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती
मैं अपने घर में हूँ घर से गए हुओं की तरह
मिरे ही सामने होता है तज़्किरा मेरा
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
रोज़ कहता हूँ कि अब उन को न देखूँगा कभी
रोज़ उस कूचे में इक काम निकल आता है
मोहब्बत खुदगर्ज़ी का खेल हैं
कुर्बानियां देने वाले कोई और काम करे
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं
बात तक करनी न आती थी तुम्हें
ये हमारे सामने की बात है
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
मैं जो कह दूँ आप पर मरता हूँ मैं
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
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