ज़ख़्म ही ज़ख्म भर गए मुझमें | अम्मार इक़बाल

अक्स कितने उतर गए मुझमें 

फिर न जाने किधर गए मुझमें


मैंने चाहा था ज़ख़्म भर जाएं

ज़ख़्म ही ज़ख्म भर गए मुझमें


ये जो मैं हूं ज़रा सा बाकी हूं 

जो तुम थे वो मर गए मुझमें 


मेरे अंदर थी ऐसी तारीक़ी

आके आसेब डर गए मुझमें 


मैं वो पल था जो खा गया सदियां

सब ज़माने गुज़र गए मुझमें 


- अम्मार इक़बाल 

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