मुकम्मल ना हो सका मुजस्सम मेरा
तराशते रहे ता -उम्र और तमाम हुए
अब कैसे चराग़ क्या चराग़ां
जब सारा वजूद जल रहा है
- रज़ी अख़्तर शौक़
मंज़िल को खबर ही नहीं,
सफर ने क्या क्या छीना है हमसे...
मरम्मत भी जिसका मुमकिन नहीं
वो जर्जर मकान हूं मैं
ये ऊँचे और अना पसन्द लोग
कुल्लू नफसिन ज़ाऐक़ातुल मौत..!!!
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएं मगर
जंगल तेरे पर्वत तेरे बस्ती तेरी सहरा तेरा
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