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यूं ही रंगत नहीं उड़ी मेरी
हिज़्र के सब अज़ाब चखे है




कहाँ से लाऊँ वो गुज़ारा हुआ वक़्त ..
जिसमें तुम मयस्सर हुआ करते थे ..!!




हम पलटते नहीं अब बेज़ान किताबों के वरक़
हम वो पढ़ते हैं, जो चहरों पे लिखा होता है..!




काश कोई हम से भी पूछे 
रात गए तक क्यूँ जागे हो




ये माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी


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