तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ | अल्लामा इक़बाल | पूरी ग़ज़ल | Allama Iqbal


तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ 

मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ 


सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी 

कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ 


ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को 

कि मैं आप का सामना चाहता हूँ 


ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना 

वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ 


कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल 

चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ 


भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी 

बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ


• Last sher of this ghazal quoted by Bhagat Singh in his letter to his younger brother on March 3, 1931 from jail.

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